"परवीन ने तीसरे मैदान में भी क़दम रखा है और वह सफ़रनामा-निगारी यानी यात्रा-वृतान्त लिखने का मैदान है। यह सफ़रनामा, जिसका नाम ‘चन्द सीपियाँ समन्दरों से’ है, केवल एक सफ़रनामा नहीं बल्कि परवीन शेर की अन्दरूनी आवाज़ है, जिसमें सुकून कम शोर अधिक है। इस शोर का सुर 'सियाह रौशनी’ के संदर्भ में अधिक ऊँचा है। यह उन नये लोगों की मानसिकता पर से पर्दा उठाता है, जो लोगों में बेहद प्रगतिशीलता, तार्किकता, परोपकार, इंसाफ़-पसन्दी, लोकतांत्रिक व्यवहार और अभिव्यक्ति की आज़ादी के दावेदार हैं। परवीन शेर ने दक्षिण अफ़्रीका की उन जेलों को अपनी आँखों से देखा है जो जेल कम ज़िन्दा इंसानों की क़ब्रगाहें अधिक थीं। उन बस्तियों को देखा है जिन्हें नये बसने वालों ने अपनी सुविधा के लिए उजाड़ दिया और उन लोगों को अपनी ही धरती पर बे-घर कर दिया जो वहाँ के मूल निवासी कहलाते थे। परवीन ने इसी सफ़रनामे के दूसरे अध्याय में इतिहास के उस समय का दोबारा वर्णन किया है, जो ज़ख्मों से चूर है। इस अध्याय का शीर्षक ‘जादू की दुनिया’ है और यह ‘जादू की दुनिया’ इस अर्थ में जादुई दुनिया नहीं है कि यह पूँजी से मालामाल है बल्कि प्रकृति की देवी की अंतहीन सुन्दरता और पुरात्तव के जलवों ने उसे मालामाल किया है। ग़रीबी और पिछड़ेपन से भी यह दुनिया ख़ाली नहीं है। परवीन ने अपने सफ़रनामे में हर रंग को भरने की कोशिश की है। इन रंगों को उनके विजुअल आर्ट में भी देखा जा सकता है, जहाँ वे एक और ही दुनिया की रूपरेखा हमारे सामने पेश करती हैं।
"इस समय हिंदी में महिला कहानीकारों का एक सार्थक हस्तक्षेप है. ये अपने समय को कहानी में जिस ढंग से अभिव्यक्त कर रही हैं वह अपने समय और समाज पर उनकी गहरी पकड़ और कल्पनाशील दृष्टि का परिचायक है. जो उनकी मानवीय संवेदना की भूमि से उपजी है. आज सभी अपने लिए सहानुभूति नहीं बल्कि उसके खिलाफ अपने अधिकारों व अस्तित्व के लिए संघर्ष के साथ उसे साहित्य में भी अभिव्यक्त कर रही हैं. आशा शर्मा की कहानियाँ उसी स्त्री के जीवन के बीच से उसके जीवन को टटोलने की कहानियाँ हैं. वे सहजता से उस जीवन को अभिव्यक्त करती हैं अपनी कहानियों में जिसके बीच एक स्त्री रोज जीती- मरती है. आशा शर्मा की अधिकाँश कहानियाँ स्त्री के संघर्ष, परिवेश के साथ उसकी मुठभेड़ और समय के साथ बदलती नई भावभूमि की कहानियाँ हैं. आशा शर्मा की कहानियाँ सहजता से उस जीवन की आगल खोलती हैं जो न जाने कब से हमारे अजाने हमारे ही अगल-बगल घुटती साँस ले रहा है. उसी घुटन से बाहर आने की छटपटाहट है इन कहानियों में. सहज शिल्प की ये कहानियाँ सहजता से पाठक के भीतर एक गहरी लकीर छोड़ती हैं.
"इस किताब को मैंने कोराना काल में लिखना शुरू किया है। प्रवासी श्रमिकों की समस्या इस समय विकट है। लॉकडाउन के चलते न तो उन्हें रोजी-रोटी के लिए काम मिल पा रहा है और न ही घर पहुँचने के लिए पर्याप्त साधन मिल पा रहे हैं। कुछ मजदूर लंबी दूरी तय कर गाँव पहुँचने के लिए निकले हैं, जो सैकड़ों किमी अपने सामान और छोटे बच्चों के साथ सफर करने को मजबूर हैं। सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए साधनों के बावजूद बिना सामाजिक दूरी का पालन किए भूखे-प्यासे सफर कर रहें हैं। दूसरी ओर विभिन्न राज्य अपनी सीमाओं को बार्डर में तब्दील कर अपने ही प्रदेश के मजदूरों के प्रवेश में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं जो बहुत ही भयानक है। सरकारों के भरसक प्रयासों और दावों के बावजूद बहुत से मजदूर अमानवीय जीवन जीने को विवश हैं। श्रमिक प्रतिनिधियों की राय लेने के बाद यदि श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाते तो शायद बेहतर परिणाम मिल सकते थे। लॉकडाउन के दौरान मैं बाहर नहीं निकल सकता, इसलिए मैंने अपने बचपन की यादों के साथ-साथ सेवा के अनुभवों को संगृहित करने का मन बना लिया तथा इसे एक पुस्तक प्रारूप में लिख रहा हूँ। हालाँकि मेरे पास पुस्तक लिखने के लिए कोई ज्ञान और ऐसा अनुभव नहीं है, बल्कि मैंने वास्तविक घटनाओं और अपने अनुभवों का उल्लेख बिना किसी काल्पनिकता के किया है जैसा मैंने अपने जीवन में सामना किया है। इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य औसत दर्जे के युवाओं को बताने का मेरा प्रयास है कि लोकतंत्र की सुंदरता यह है कि कड़ी 8 मेहनत और प्रतिबद्धता से कोई भी व्यक्ति उस स्तर तक ऊपर उठ सकता है जहाँ उसकी प्रतिभा उसे ले जाए। मैंने कई सामाजिक रीति-रिवाजों का उल्लेख किया है, हालाँकि मैं किसी भी सामाजिक बुराई का समर्थन नहीं करता। किसी भी बुरी लत का शिकार होने के बजाय उससे छुटकारे का प्रयास करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के जीवन में बचपन से ही उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन एक बार गिर जाने पर भी उसे सँभलने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। हर व्यक्ति में कोई न कोई प्रतिभा होती है लेकिन यदि आप लक्ष्य के साथ ईमानदारी से काम करते हैं तो प्रतिभा को निखारने के भरपूर अवसर मिलते हैं। विद्यार्थी जीवन में मैंने अंतिम स्थान का कड़वा घूंट पिया लेकिन मैंने प्रथम स्थान भी प्राप्त किया है। बस हर कार्य के परिणाम और दुष्प्रभाव का विचार मन में होना चाहिए। इस पुस्तक के प्रथम भाग में मैंने अपनी जीवन यात्रा और अपने कड़वे अनुभवों का वर्णन किया है जिनसे होकर मैं प्रशासनिक सेवा तक पहुँचा। समाज में व्याप्त सामाजिक रीति-रिवाजों, परंपराओं और कुरीतियों के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के पतन का भी उल्लेख किया गया है। ग्रामीण मलिन बस्तियों पर कम ध्यान दिया जाता है लेकिन कई गरीब लोग ग्रामीण इलाकों में शहरी झुग्गियों की तरह ही प्रतिकूल परिस्थितियों में रह रहे हैं, इसलिए मैंने ग्रामीण गरीबों की जीवन शैली को चित्रित करने की कोशिश की है। दूसरे भाग में मैंने कुछ प्रशासनिक अनुभव साझा करने का प्रयास किया है, जो मेरे जैसे बचपन व्यतीत करने वाले युवाओं के लिए एक प्रेरणा होगी, साथ ही मैंने अपने प्रशासनिक जीवन के दौरान कुछ नवाचारों का वर्णन किया है। हालाँकि उन कार्यों और नवाचारों को कॉपी पेस्ट करना उचित नहीं है। यह नवनियुक्त अधिकारियों के लिए एक मार्गदर्शक साबित होगा। सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं के पतन, स्थापित व्यवस्थाओं के विघटन और प्रशासकों और राजनेताओं के बीच अनैतिक गठजोड़ की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है। मैंने घटनाओं को काल्पनिक बनाने का प्रयास नहीं किया है इसलिए शुरुआत में यह थोड़ा नीरस लग सकती है लेकिन एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद अधूरा नहीं छोडोगे। हालाँकि कई बार मैं बहुत कड़वे अनुभवों से गुज़रा लेकिन व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए मैंने न तो किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया है और न ही किसी को चोट पहुँचाने का मेरा कोई इरादा है। मैं यह पुस्तक अपनी दादी माँ और माता-पिता को समर्पित करता हूँ जिनकी प्रेरणा और आदर्शों से मैं इस मुकाम तक पहुँच पाया हूँ।
"मानव जीवन में कला और साहित्य जीवन्तता एवं जिजीविषा के पर्याय रहे हैं। साहित्य की विधाओं में कविता सर्वाधिक सम्वेदनशील और मूल्यवान विधा मानी जाती है। सृष्टि के उषाकाल से ही कविता अपनी उपस्थिति और उजास से सपनों-उम्मीदों के पोषण और सम्वर्धन के लिए क्रियाशील रही है, और आज भी सार्थक कविता मनुष्यता और आत्मा की सहचरी बनकर अँधेरे और अन्याय के विरुद्ध ललकारते दीख जाती है। कविता का होना जीवन में सांत्वना और आश्वासन का होना है। कविता ही हमें संघर्ष से सने उन रचनात्मक और कीमती कर्मों को बार-बार चिन्हित करती है, दर्शाती है जिनके होने से जीवन सार्थक सरोकारों से जुड़कर पूर्णता की ओर अग्रसर होते रहता है। इस लिहाज से भी कवि कर्म महत्वपूर्ण कर्म है, और इस रूप में कवि होना यकीनन दुर्लभ है। कवि और कविता गम्भीर दायित्व-बोध की माँग करते हैं, इसलिए भी कविता की उपस्थिति वर्तमान में अतीत और भविष्य की समान रूप से उपस्थिति है, जिसका होना गहन जीवनानुभवों से सम्भव है। प्राणवान अनुभव कभी भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते, उन्हें सासों को समर्पित कर कठिन श्रम से अर्जित किया जाता है। 'शब्द समर' कवि जितेन्द्र देव पाण्डेय 'विद्यार्थी' के जीवनानुभवों का सुन्दर परिपाक है।
अभी भारत की राजनीति में फि र एक बार सनातन की भारी गूंज सुनाई देने लगी है। आजादी की लड़ा ई के दि नों से लेकर पि छली सदी के साठ के दशक में काशी के सनातनी धर्म गुरुओं और साधुओं का एक समूह ‘अधर्म का नाश हो, धर्म की प्रति ष्ठा हो’ के नारे के साथ भारतीय राजनीति में इसी सनातन के नाम पर अपनी कि स्म त आजमा कर पि ट-पि टा चुका था। उसके बाद से सनातन शब्द राजनीति से लगभग नदारद था। आज जो आरएसएस सनातन के ध्व ज को उठा कर नए सि रे से बाजार में उतरा है, उन दि नों उसकी प्रे रणा का असली स्रो त वि श्व-वि जय में उतरी हुई हि टलर-मुसोलि नी की धुरी हुआ करती थी। जैसे हि टलर को ईसाइयत से कोई प्रे म नहीं था, वैसे ही आरएसएस का भी हि ंदू धर्म की प्राच ीन सनातनी धारणा से रत्ती भर लगाव नहीं था। उलटे, हि ंदू सांप्रदायि क राजनीति में ‘सनातनपंथ’ और ‘हि न्दु त्व ’ धर्म के जगत पर प्रभुत्व कायम करने के मामले में एक दूसरे के धुर-प्रतिद्वंद्वी बने हुए थे। इनके बीच तीव्र वैचारिक और जमीनी संघर्ष भी हुए थे। तब आरएसएस ने सनातनपंथ के विप रीत नाजिय ों के राष्ट्र वाद की तर्ज पर हि ंदुत्व की राष्ट्र वादी धारणा को अपनाया था। पर यह इति हास का एक अनोखा उलट-पुलटपन ही है कि आज जब देश पर आरएसएस का शासन चल रहा है और वह अपने नाजीवादी हि टलरी मंसूबों को पूरा करने के लि ए दि न रात एक कर रहा है, तभी उसने सनातनपंथ के उस पुराने खुद के द्वा रा ही फेंक दिय े दो शब् • 11 गये झंडे को उठाने का नि श्चय किय ा है। इसे कहते हैं एक फासीवादी संगठन पर कि सी जनतांत्रि क व्य वस्था के ढांचे में, भले वह कि तना ही जर्ज र क्य ों न कर दिय ा गया हो, काम करने की मजबूरी से पैदा होने वाला ‘उलट-पुलटपन’। इसे फासि स्ट ों का गि रगि टपन, एक शुद्ध सामयि क पैंतरेबाजी भी कहा जा सकता है। इसे अपनी शक्ति के क्षय की आशंका से पैदा होने वाले वि शेष लक्षण भी कहा जा सकता है। पर समय की तात्कालि क जरूरतों के ऐसे दबाव ही बहुधा इति हास ऐसे नए चेहरों को उपस्थि त कर देते हैं, जि नकी पहले कोई दूसरी मि साल नहीं मि लती। ऐसे में जो यह मान कर चलते हैं कि उन्ह ोंने इति हास के गति के घोड़ ों की रास थाम ली है और वे समय को अपनी मनमर् जी से हांक सकते हैं, वे अचानक ही अपने रथ के साथ कि सी गहरी खाई में गि रकर मरे हुए दि खाई देते हैं। ये दुर्घ टनाएं कभी-कभी इतनी भयावह भी होती है कि मरने वालों की पहले की सूरत भी पहचानना मुश्कि ल हो जाता है।
रफ़ाक़त हयात रफ़ाक़त हयात 1973 में सिंध के ज़िला नौशहरो फ़िरोज़ के क़स्बे मेहराबपुर में पैदा हुए। प्रारंभिक शिक्षा मेहराबपुर, नवाबशाह और ठट्टा में पाई और कराची यूनीवर्सिटी से बीए किया। शुरू में शायरी की लेकिन जल्द ही गद्य लेखन की तरफ़ आकृष्ट हो गए. कहानी लिखने का आग़ाज़ 1990 के बाद किया और पहला संग्रह ‘ख़्वाह-मख़्वाह की ज़िंदगी’ 2003 में प्रकाशित हुआ. पहला लघु उपन्यास ‘मीरवाह की रातें’ 2015 में पहली बार त्रैमासिक ‘आज’, कराची में शाय हुआ, और 2016 में पुस्तक के रूप में लाहौर से छपा। सिंधी के वरिष्ठ लेखक और शायर शब्बीर सूमरो ने उसे सिंधी भाषा में अनुदित किया जो 2018 में प्रकाशित हुआ। भारत में इसके तीन उर्दू संस्करण दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। दूसरा उपन्यास ‘नौजवान रोलाक के दुखड़े’ प्रकाशन के मरहले में है। ‘पाकिस्तानी उर्दू नावल:1947 से ताहाल’ शीर्षक से उर्दू के चुने हुए 69 उपन्यासों का विश्लेषण, उपन्यासकारों के परिचय और नमूने के पृष्ठों के साथ संकलित किया जो 2022 में अकादमी अदबियात, पाकिस्तान ने प्रकाशित किया। पेशे के लिहाज़ से रफ़ाक़त हयात स्क्रिप्ट राइटर हैं और कमर्शियल ड्रामों के इलावा बहुत सी साहित्य कृतियों और उपन्यासों का टीवी के लिए ड्रामा-रूपांतरण कर चुके हैं जिनमें स्टीफ़न ज़वीग का उपन्यास ‘बिवेयर ऑफ़ पिटी’, मुहम्मद ख़ालिद अख़तर का ‘चाकीवाड़ा में विसाल’ और नजीब महफ़ूज़ का उपन्यास ‘जिस रोज़ सदर का क़त्ल हुआ’ शामिल हैं। इसके इलावा मशहूर तुर्की ड्रामे ‘मेरा सुलतान’ के उर्दू संवाद भी तहरीर कर चुके हैं। अनुवादक का परिचय असरार गांधी जनवरी 1946 में इलाहाबाद में पैदा हुए। वे उर्दू के कहानीकार, अनुवादक और अवकाश प्राप्त अध्यापक हैं. प्रगतिशील विचारधारा से गहरा सम्बन्ध रेखते हैं। उनकी कहानियों के चार संग्रह ‘परत परत ज़िंदगी’, ‘रिहाई’, ‘गुबार’, ‘एक झूठी कहानी का सच’ प्रकाशित हुए। साथ ही रेखाचित्र, संस्मरण, आलोचनात्मक लेखन भी करते हैं। उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने लाइफ़ अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया और बंगाल उर्दू अकादमी ने कहानी संग्रह ‘परत परत ज़िंदगी’ को पुरस्कृत किया। उर्दू से हिंदी में शौक़िया अनुवाद करते रहे हैं तथा रेडियो, टीवी प्रोग्रामों और राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सेमीनारों में शरीक होते हैं।
"साहित्य का चित्त हिंदी में साहित्य को स्वायत्त और संपूर्ण अनुशासन मानकर इसकी प्रकृति, स्वरूप और प्रक्रिया पर विचार की कोई बहुत समृद्ध परंपरा नहीं है। जो विचार हुआ है, वो प्रायः साहित्य को एक परजीवी या इस-उस पर निर्भर अनुशासन मानकर हुआ है और इससे साहित्य की अपनी पहचान और महिमा का निरंतर क्षरण हुआ है। नंदकिशोर आचार्य हिंदी के उन कुछ बहुत कम लोगों में से एक हैं, जिनके लिए साहित्य मानव की ‘चित्त की खेती’,मतलब ‘अनुभूत्यात्मक मूल्यान्वेषण’ की प्रक्रिया है। इस धारणा का व्यवहार उन्होंने अपनी कविता और विचार, दोनों में दृढ़ संकल्प और अविचलित आस्था के साथ किया है। यहाँ संकलित निबंध साहित्य पर इसी धारणा के साथ विचार करते हैं। ख़ास बात यह है कि यह विचार साहित्य की किसी ठहरी हुई सैद्धांतिकी पर निर्भर या उससे उत्पन्न नहीं है। यह अलग बात है कि उनके आलोचनात्मक विवेक में भारतीय और पश्चिमी कला दृष्टि की स्मृति और संस्कार निरंतर सक्रिय हैं और यह कहीं भी अलग से उन पर हावी भी नहीं दिखते। साहित्य की प्रकृति के अलावा लेखक यहाँ कबीर, प्रसाद, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा, गोविंद
उन की कविता एक नई दिशा की ओर संकेत करती है, एक नई दृष्टि का प्रमाण देती है। अज्ञेय अपने अस्तित्व की उन की मुद्रा चिंतक की होते हुए भी छद्म नहीं लगती, यह बड़ी बात है। यह मुद्रा ओढ़ी हुई नहीं है... चिंतन मूलभूत भावना की रक्षा के लिए उस पर स्वतः सख्त होकर उपजा खोल है। इसलिए उसे थोड़ा कुरेद कर देखने पर वह कोमल भावना मिलती है जो किसी कविता का प्राण होती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नन्दकिशोर आचार्य कविता, विज्ञान दर्शन और कलात्मक सौंदर्य के विरल उदाहरण हैं। आचार्य प्रेम और इस कायनात के रहस्यों की फिक्र के कवि हैं। उनका चिंतन प्रेम और जीवन-मृत्यु पर एकाग्र है। इस दृष्टि से वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं। -नरेश सक्सेना नन्दकिशोर आचार्य की कविता का स्थापत्य स्वयं कम दिलचस्प नहीं है इसमें ठेठ गद्य की लय और गीति तत्त्व का अनोखा मेल है। -प्रयाग शुक्ल शायद इन कविताओं में यह सम्भावना है कि समय इन्हें नया करता रहेगा। कुछ उसी तरह जैसे नन्दकिशोर आचार्य अपने को नया करते रहते हैं कविता के कई पड़ावों से गुजरने के बाद। आलोचना और गिरधर राठी इनमें दृश्य भाषा से गुजरता है और ध्यान-चिंतन में से। अपने सूक्त-वाक्यों में ये कई जगह जेन कविताओं के निकट जान पड़ती है, लेकिन उनकी तरह किसी एक बिंब पर खत्म नहीं हो जातीं। गगन गिल
"प्रेम-विस्तारित आकाश के एक कोने से दूसरे तक फैला... कुछ भी तो इससे बाहर नहीं है और जो इससे बाहर है, वह सबसे बाहर है, खुद से भी। प्रेम-अपने भीतर से फूटता एक ऐसा रास्ता जो घूमता हुआ तुम्हीं पर आकर खत्म होता है। वह तुम्हारे बाहर के संसार को गिरा देता है कि तुम भीतर जिंदा रह सको। अमृता और इमरोज़-दो सितारे, प्रेम के चमकते आकाश पर. कुछ लोग अपनी तरह से जीकर चले जाते हैं, दुनिया की आँखों और सोच को धता बताते हुए। कौन समझना चाहता है उन्हें? अपने वक्त में प्रेमी और पैगम्बर कभी समझे नहीं जाते। ये भीतर के एक ऐसे जगत की ओर इशारा करते हैं, जहाँ पहुँचने के बाद कोई भी संसार के काम का नहीं रहता। प्रेमी और पैगम्बर बहुत आहिस्ता आहिस्ता तुम्हें बदलते हैं और मनुष्य बदलने को कभी राज़ी नहीं होता। वे जब तक जीवित रहते हैं, बदनामी की कीचड़ से लिथड़े रहते हैं और उनके जाते ही लोग उनकी तस्वीरों पर फूल चढ़ाते हैं। उनके उदाहरण देते हैं. उनके जैसा बनना चाहते हैं। इससे किसको फ़र्क पड़ता है? जो प्रेम में रूह और जिस्म की बहसों में पड़ जाते हैं, जिंदगी उनसे ओझल रहती है। कहाँ जिस्म गिरता है, रूह बच जाती है, कहाँ रूह ओझल हो जाती है, जिस्म रह जाता है, इसे तो कोई भी समझ नहीं पाया। अनुराग तो प्रेम के कवि हैं। प्रेम, जिसमें हम अपना चेहरा बहुत साफ़ देख पाते हैं और इन कविताओं में भी। - जया जादवानी
भार तीय रागों के पीछे एक महान इतिहास है। वे एक व ्यवस ्थित प्र तिमान (पैटर्न ) में विभि न्न स्वरों के संयोजन हैं। अगर पूर्णता के साथ प्रस् तुत कि ये जाएँ, तो वे चमत्कार कर सकते हैं। जिस प्रकार अगर सही प्रबलता और उद् देश्य की पवित्रता के साथ गाया जाए, तो राग मल्हार किसी भी मौसम में वर्षा को आमंत्रित कर सकता है और राग दीपक, दीप को प्रज्वलित कर सकता है। वे अलग-अलग मनोदशा और भावों के साथ समय के बोध को भी रच सकते हैं। मैं पाठकों को बता दूँ कि बाद में जब यह काम पूरा होकर मेरे सामने आया और मैंने अपने छात्रों एवं परिवार की सहायता से (मेरा स्वास्थ्य खराब होने के कारण) उसे देखा, मुझे ऐसे मेधावी छात्र का गुरु होने पर गर्व महसूस हुआ। जब आप पृष्ठ-दर-पृष्ठ पुस्तक में जाते हैं, तो आपको उनकी ईमानदारी, निष्ठा और रचनात्मकता का पता चलता है। पूरी किताब कला का नमूना है, जो उनकी भावनाओं, चरित्र और संगीत व भारतीय संस् कृति के प्रति उनके प्रेम और व्यक्तिगत श्रद्धा को दर्शाती है। उनके काव्यात्मक विवरण और कल्पनाशक्ति ने इस पुस्तक में वर्णित प्रत्येक राग की विशेषताओं को उनके सही भाव तथा व्यवहार के साथ दर्शाया है।
आई ए रिचर्ड्स के मुताबिक अनुवाद को ब्रह्मांड के सबसे अधिक जटिल कामो में से एक माना गया है। अनुवाद प्यार की बेगार है। इस पुस्तक में कविता, कहानी और निबंधों के वे अनुवाद हैं जो मैंने समय समय पर, अपने आनन्द के लिए या पत्र पत्रिकाओं के इसरार पर किए। इनमें विविधता है क्योंकि ये सिर्फ किसी ख़ास रुचि की तानाशाही के तहत नहीं किए गए। अनुवाद आनन्द भी है और अनुवादक की तकलीफ़ भी। इसे वही समझ सकते हैं जो इसमें खुद अपनी मर्जी से लगे हों। यह शब्दों के लिए भटकना है, आशयों के पीछे पीछे जाना है, अर्थ की खोज करना है और अंततः असंतुष्ट, अतृप्त रह जाना है। लेकिन यहाँ रुकना नहीं है, नए पाठ का अभिसार आमंत्रण फिर सामने है। आख़िरकार अनुवाद एक सृजनात्मक प्रक्रिया है और बहुत यांत्रिक ढंग से नहीं हो सकती। इसके लिए दोनों भाषाओं की प्रकृति में पैठ, उनके मुहावरों प्रतीकों अभिव्यक्तियों में समतुल्य संधान कर सकने की दक्षता चाहिए। सांप ज़िन्दा रहे, लाठी भी न टूटे, और उसके डसने के साथ पुनर्जन्म भी हो जाए, ऐसी कारसाज़ी है अनुवाद। जाहिर है यह कारसाज़ी कभी हो पाती है, कभी नहीं भी। मगर हर कोशिश अपना महत्त्व रखती है। हम लेखक पर कुर्बान होते हुए कई बार पांडुलिपि पर गिरे अनुवादक के पसीने और आंसुओं की बूंदों के सूखे हुए निशान देख नहीं पाते। अनुक्रम कविताएँ आख़िरी सबक़ : अलफ़ोन्से दॉदे लंच : सॉमरसेट मॉम 136 ज़ंग की एक रात : ग्राहम ग्रीन राज्याविषवृक्ष : विलियम ब्लेक उम्मीद एक शै है पंखों वाली : एमिली डिकिनसन लिख सकता हूँ मैं आज रात : पाब्लो नेरूदा नेरूदा को ख़ारिज करने के दो तरीक़े हैं : निकानोर पार्रा सबक़ : एडवर्ड लूसी स्मिथ जलने की गन्ध : थॉमस ब्लैकबर्न एक अनजान सिपाही की क़ब्र पर : ऑस्कर हान किसने कहा? : — दूसरों की सलाह : नाज़मि अल सैयद सांत्वना : विस्लावा शिम्बोर्स्का मृतकों की चिट्ठियाँ : विस्लावा शिम्बोर्स्का आँकड़ों के बारे में एक बात : विस्लावा शिम्बोर्स्का अन्त और आरम्भ : विस्लावा शिम्बोर्स्का आलेख गरिमा और एकजुटता : एडवर्ड सईद पाब्लो नेरूदा के सम्मान में स्वागत भाषण : निकानोर पार्रा जॉर्ज लूकाच : विषाद का विषम व्याकरण : लेवी ब्लांक कहानियाँ शहसवार : डी.एच. लॉरेंस खलनायक : मान रूबिन उस लड़की का प्यार : कैथरीन मैन्सफील्ड मेले के बाद : डिलन टॉमस ध्यक्ष : एन वोगल"
"रुस्तम हमारे समय के विरल कवि हैं। वह उन थोड़े से कवियों में हैं जिनकी कविता न तो बाह्य जगत की अनुकृति है और न केवल आभ्यन्तर का आभास। उनके यहाँ दृश्य हैं, वस्तुएँ और पदार्थमयता भी, फिर भी लगता है जैसे कुछ अतिरिक्त भी है, कुछ अवरयथार्थ सरीखा।...... ये दृश्य हमें हठात् एक अतीन्द्रिय लोक में ले जाते हैं। और कविता अनेकानेक अर्थ वलयों से सम्पन्न हमें स्तब्ध कर देती है, जहाँ काल और देश की पारम्परिक अनुभूतियों-अवधारणाओं से बिलकुल अलग एक अप्रत्याशित कॉस्मॉस हमारे लिए खुलता है। सारे शब्द, वाक्य संयोजन, सब कुछ पहचाना हुआ होकर भी रहस्यमय और आधिभौतिक की सृष्टि करते हैं।...... ये कविताएँ हमसे एकान्त ध्यान की माँग करती हैं क्योंकि इनका सँभार और सौन्दर्य विलक्षण है। प्राय: मद्धम लय और आन्तरिक ताप से समृद्ध ये कविताएँ समकालीन हिन्दी कविता की एक असम्भावित घटना की तरह हैं।" — अरुण कमल
14 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, राजस्थान (बीकानेर) में सूर्य मंदिर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एवं नीरज दइया व राजेन्द्र पी जोशी द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह उल्लेखनीय रहा है। अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में विधा पर विशद चर्चा, पत्रवाचन और लघुकथा पाठ के साथ ही इसे यादगार बनाने के लिए संभागी रचनाकारों और प्रमुख लघुकथाकारों की रचनाओं को संकलित कर संग्रह ‘आधुनिक लघुकथाएं’ प्रकाशित किया गया। संपादकों ने इस संकलन के लिए जहां प्रतिनिधि और चयनित लघुकथाओं को संकलन के लिए चयनित किया वहीं इसमें शामिल किया है वहीं लघुकथा की शास्त्रीयता (जयप्रकाश मानस) और लघुकथा का वर्तमान (डॉ. अशोक कुमार प्रसाद) के महत्त्वपूर्ण आलेख भी विशद भूमिका के साथ शामिल हैं। यह संकलन न केवल लघुकथा के लेखकों के लिए संग्रहणीय है वरन लघुकथा विधा पर कार्य करने वाले शोधार्थियों और अध्ययनकर्त्ताओं के लिए भी बेहद उपयोगी और संग्रहणीय है।
पुस्तक ‘बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार’ में राजस्थानी और हिंदी के वरिष्ठ लेखक बुलाकी शर्मा के सृजन के साथ-साथ एक आत्मीय भाषा में उनके लेखक को जानने का भी सुंदर और अविस्मरणीय प्रयास आलोचक डॉ. नीरज दइया ने किया है। इस कृति पर लेखक को द्विवेदी युग के ख्यात निबंधकार, विचारक, लेखक बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव की स्मृति में प्रतिवर्ष दिया जानेवाला सम्मान 2017 में अर्पित किया गया है। यह सम्मान बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव साहित्यपीठ, रायपुर द्वारा प्रतिवर्ष निबंध विधा पर उल्लेखनीय कार्य के लिए प्रदान किया जाता है । यह विशिष्ट सम्मान समीक्षक-निबंधकार श्री नीरज दइया को सृजनगाथा डॉट कॉम के मुख्य संयोजन में आयोजित हुए 14 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के अंलकरण समारोह, उदयपुर, राजस्थान में 11 अक्टूबर, 2017 को प्रदान किया गया। चयन समिति में सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर (पटना), वरिष्ठ लेखिका-समीक्षक डॉ. रंजना अरगड़े (अहमदाबाद), वरिष्ठ कथाकार तथा उ.प्र.हिंदी संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. सुधाकर अदीब(लखनऊ), वरिष्ठ लेखिका, साहित्य अकादमी की सदस्या डॉ. मीनाक्षी जोशी (भंडारा), मावलीप्रसाद श्रीवास्तव साहित्यपीठ, रायपुर के संस्थापक-सचिव-शंकर श्रीवास्तव (रायपुर) तथा जयप्रकाश मानस (संयोजक) थे । पुस्तक के संबंध में चयन समिति ने अपनी संस्तुति में कहा कि “ श्री दइया की इस कृति में संग्रहित निबंध किसी रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने और परखने की कथित रूप से ज़रूरी अकादमिक और क्लासिक परंपरावाली क्लिष्टता और संशलिष्टता के बरक्स आत्मीय और सहज रागात्मक भाषा में मूल्याँकन के नये और कारगर टूल्स को चिह्नांकित करते हैं ।” यह कृति आलोचना की नई भाषा का आगाज करती हमारे समकालीन रचनाकारों पर आलोचनात्मक कार्य किए जाने का महत्त्व भी प्रतिपादित करती है।
बीकानेर न केवल साहित्य की उर्वर भूमि है बल्कि सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए पूरे भारत में जाना जाता है।रंगकर्म से लेकर आर्ट गैलरी में समय समय पर लगने वाली प्रदर्शनियों को मैंने निकट से देखा है।एक दर्ज़न से अधिक साहित्यकारों की ख्याति अखिल भारतीय स्तर की है।हिंदी साहित्य वास्तव में बीकानेर का ऋणी है। फ़िलहाल वहाँ के तेजी से उभर रहे व्यंग्य लेखक नीरज दइया की दूसरे व्यंग्य सन्ग्रह”टायं टायं फिस्स” के बारे में कुछ टिप्पणियाँ लिखने का मन है। बीकानेर वह धरा है जहाँ मालीराम शर्मा,डॉ मदन केवलिया,बुलाकी शर्मा,हरदर्शन सहगल जैसे दिग्गज व्यंग्यकारों ने व्यंग्य साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।मालीराम शर्मा का स्तम्भ लेखन बेहद पठनीय और लोकप्रिय रहा है। ऐसे वातावरण वाले शहर में व्यंग्यकारों का उभरना सामान्य बात है।नए व्यंग्यकारों के लिए अपने इन दिग्गजों से सीखने के विपुल अवसर रहते हैं।चुनौतियाँ भी इन्हीं के लेखन से हैं। नीरज दइया के दूसरे व्यंग्य सन्ग्रह “टायं टायं फिस्स”में कुल 40 व्यंग्य संकलित हैं।उनका शुरुआती व्यंग्य सन्ग्रह से यह व्यंग्य सन्ग्रह काफी परिपक्व है। वैसे अन्य अनुशासनों में नीरज दइया का नाम बेहद जाना पहचाना है,खासकर राजस्थानी साहित्य में।उनके पिताजी स्व सांवर दइया राजस्थानी साहित्य के चर्चित साहित्यकार हुए हैं। नीरज दइया ने यह संकलन राजस्थानी और हिंदी के साहित्यकार मंगत बादल को समर्पित किया है।मंगत जी व्यंग्य भी लिखते हैं।भूमिका जाने माने व्यंग्य कवि भवानीशंकर व्यास विनोद ने बेहद भावुक होकर लिखी है।प्रशन्सात्मक भूमिका नीरज जी को अच्छा और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेगी। ‘ये मन बड़ा पंगा कर रहा है’ व्यंग्य में लेखक कहता है’एक दिन सोचा मन की फ़ोटो प्रति कर ली जाय मगर मन है कि पकड़ में नहीं आता।’फन्ने खाँ लेखक नहीं’में लेखक कहता है-लेखक होना अपने आप में अमर होना है।इस अमरता के लिए ही लेखक मरे जा रहे हैं।”सबकी अपनी अपनी दुकानदारी”में नीरज जी लिखते हैं’अच्छे दिन हैं कि सभी घास खाएं और सोएँ’ ।वी आईं पी की खान व्यंग्य में वी आईं पी कल्चर पर प्रहार किया गया है।साहित्य माफिया में वह लिखते हैं-साहित्य भी एक धंधा बन चुका है।आज किसके पास समय है कि साहित्य जैसे फक्कड़ धंधे में हाथ आजमाए।चीं चपड़….व्यंग्य में कहा गया है-पिंजरा केवल चूहों के लिए ,हम सभी के लिए अलग अलग रूपों में कहीं न कहीं किसी न किसी ने निर्मित कर रखा है। इस व्यंग्य सन्ग्रह में आक्षेप,भर्त्सना,कटाक्ष आदि व्यंग्य रूपप्रचुरता में विद्यमान हैं लेकिन विट,आइरनी,ह्यूमर आदि न के बराबर है।विद्रूप चित्रण से ज्यादा प्रभावी प्रहार हैं।यदि इन सशक्त प्रहारों के साथ विद्रूपता को साध लिया जाय तो नीरज जी का लेखन ऐतिहासिक हो जायेगा।भाषा साधारण किन्तु प्रवाहमयी है। पंच काका की हर व्यंग्य में उपस्थिति से शैलीगत प्रयोग नहीं हो पाये हैं। इस सन्दर्भ में मुझे अपना प्रतिदिन का नवज्योति में कॉलम लिखना याद आ गया।ढाई साल तक मैंने रोजाना व्यंग्य कॉलम लिखा था”गयी भैंस पानी में”शीर्षक से। शुरुआती दिनों में मैं हर व्यंग्य में भैंस को ले आता था,जिससे व्यंग्य की धार कुंद हो जाती।दस दिनों बाद संपादक और मित्रों के टोकने पर मैने शैली बदल दी थी। बहरहाल इस संग्रह के बाद व्यंग्य जगत को नीरज जी से उम्मीदें बढ़ गयीं हैं। - अरविंद तिवारी (वरिष्ठ व्यंग्यकार)
किसी भी रचनाकार का अपने परिवेश के साथ, अपने समाज के साथ, अपने समय के साथ क्या रिश्ता है यह जानने का अच्छा एवं सही तरीका है उसकी रचना के माध्यम से प्रकट होने वाली उसकी ‘रचनात्मक दृष्टि’। मनुष्य जीवन में भी मनुष्य के हर कार्य के पीछे उसकी ‘दृष्टि’ छुपी होती है और उसी ‘दृष्टि’ के आलोक में हम उस कार्य का और उस कार्य के कारण उस मनुष्य का आकलन करते हैं। इसीलिए जब हम किसी रचनाकार के अब तक प्रकाशित रचनाकर्म का आकलन करने बैठते हैं हमें सबसे पहले यह जानना पड़ता है कि उस रचनाकार की ‘दृष्टि’ क्या है, जो उसकी रचनाओं के माध्यम से हम तक सम्प्रेषित होती है। वह रचनाकार अपने समय के सवालों से कैसे जूझता है, अपने समय को एक शाश्वत समय में कैसे प्रतिष्ठित करता है। हम इससे भी एक कदम पहले लेकर यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि वह अपने समय के सवालों को कैसे उठाता है। अपने समय को प्रश्नांकित करना, अपने समय से मुठभेड़ करना एवं उस मुठभेड़ को एक शाश्वत समय में प्रतिष्ठित करना किसी भी रचनाकार के लिए सबसे बड़ी चुनौति होती है। जो रचना इस कार्य को ठीक तरह से पूरा कर पाती है वह अपने पाठकों का विश्वास अर्जित कर लेती है। श्री मधु आचार्य के सर्जनात्मक सरोकारों पर केन्द्रित यह पुस्तक तत्कालीन समाज के लिए एवं स्वयं रचनाकार के लिए एक आइने का काम करेगी क्योंकि इस पुस्तक के लेखक डॉ. नीरज दइया अपनी इस पुस्तक में श्री मधु आचार्य की रचनाओं में छुपी ‘रचनात्मक दृष्टि’ को समाज के सामने लाने का प्रयास करते हैं जिसके कारण वे रचनाएं एवं उन रचनाओं के माध्यम से स्वयं रचनाकार महत्त्वपूर्ण माना जाता है। श्री मधु आचार्य के रचनाकर्म का आकलन इसलिए भी जरूरी लगता है कि वे एक ही समय में दो भिन्न भाषाओं में साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, व्यंग्य एवं बाल साहित्य के क्षेत्र में निरंतर लिखना एवं स्तरीय लिखना दो अलग अलग बातें हैं। श्री मधु आचार्य के लेखन की विशेषता यही है कि वे दो भिन्न भाषाओं में इतनी साहित्यिक विधाओं में एक साथ सक्रिय रहते हुए भी अपने रचनाकर्म के साथ समझौता नहीं करते। इसलिए भी उनका पाठक वर्ग उन पर उनके रचनाकर्म के कारण विश्वास करता है, उन्हें प्यार करता है। किसी भी रचनाकार के लिए उसके पाठक वर्ग का विश्वास ही सबसे बड़ी पूजी होती है और श्री मधु आचार्य पाठकों के इस विश्वास पर खरे उतरते हैं। कविता और कहानी या उपन्यास और नाटक या कि बड़ों के लिए लेखन एवं बच्चों के लिए लेखन दो भिन्न मानसिकता, दो भिन्न धरातल, भिन्न भाषागत व्यवहार भिन्न शिल्पगत वैशिष्ट्य को साधना है। एक रचनाकार के लिए भाषा को ‘सिरजना’ एवं भाषा को ‘बरतना’ का सांमजस्य बनाये रखना बहुत जटिल कार्य होता है। खास तौर से जब साहित्यिक विधा की अपनी अन्दरूनी मांग ही उससे भाषा के भिन्न ‘वैशिष्ट्य’ को अपने पाठक तक पहुंचाने की चुनौति देती है। इस पुस्तक में लेखक डॉ. नीरज दइया विवेचित रचनाकार के रचनाकर्म के उस वैशिष्ट्य को उसके पाठक तक पहुंचाने के लिए एक ‘सेतु’ बनाने का श्रमसाध्य कार्य करते हुए सामने आते हैं। यही इस पुस्तक की विशेषता है और इस कार्य के लिए डॉ. नीरज दइया को बहुत बहुत बधाई। श्री मधु आचार्य का रचनाकर्म अभी चुका नहीं हैं। उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में वे राजस्थानी एवं हिंदी में और रचनाएं अपने पाठक समुदाय को सौंपेंगे। रंगकर्म के क्षेत्र में उनके लम्बे अनुभव को देखते हुए राजस्थान के रंग सामाजिक को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। वे अपने जीवन में एवं अपने सर्जनात्मक क्षेत्र उत्तरोत्तर उन्नति की ओर बढ़ेंगे यही कामना है। - डॉ. अर्जुनदेव चारण वरिष्ठ कवि-नाटककार-आलोचक
कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट के आलेखों-समीक्षाओं की यह पुस्तक दरअसल उनके कविकर्म का ही विस्तार है। वे किसी अन्य आसन पर बैठ कर कृति का मूल्यांकन करने, उसे किन्हीं महाविद्यालयीन मापदण्डो से खारिज अथवा पास करने का उपक्रम नहीं करते हैं। वे निखालिस कवि होने की अपनी जमीन पर खड़े हो कर, अपने समय और पूर्ववर्ती कृतियों से रूबरू होते हैं। यहाँ कविता को कविता की शर्तों पर, अक्सर कविता की ही भाषा में पकड़ने की कोशिश देखने को मिलती है। समीक्षाओं, आलेखों की प्रचलित रूखी-सूखी भाषा से इन लेखों का कोई मेल नहीं बैठता दीखता। यहाँ कल्पनाशीलता का लुत्फ कल्पनाशील होकर लिया गया है। इन अर्थों में यह पुस्तक पाठकों के लिए हिंदी आलोचना की सामान्य परिपाटी से अलग कृति और कृतिकार को देखने, समझने की नितान्त नई पीठिका प्रदान करती है। -शंपा शाह
हिन्दी लेखन के व्यापक दायरे में अनिरुद्ध उमट की ये कहानियाँ एक नई और निजी आवाज़ में बोलती हुई सुनाई देती है। वास्तविक, यथार्थवादी स्पेस से हट कर वह कल्पना की सीमाओं तक की गयी खोज यात्रा की-सी मालूम देती है। उनका स्पर्श नींद में देखे गए स्वप्न का-सा है, जिसमें बहुत-कुछ जो घटता है अकारण होता है, सपने-सा ही विसंगत और गैर सिलसिलेवार, अवचेतन के किसी बिंदु पर स्थित। लीक से हट कर लिखने का, नए प्रयोगों का जोखिम अनिरुद्ध इन कहानियों में उठाते हैं, जिसके कारण उन की अपनी अलग-सी पहचान बनती है। -सारा राय
नीरज दइया समकालीन व्यंग्यकारों में एक महत्वपूर्ण नाम हैं। उनका महत्व इस लिए भी बढ़ जाता है क्योंकि व्यंग्य में यह संक्रांति काल है। क्रांति का फल क्या निकलेगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है। संक्रांति यह है कि सोशलमीडिया के सुविधाजनक आगमन व हस्तक्षेप से अभिव्यक्ति आसान, निष्कंटक और अपार हो गई है। व्यंग्य केवल तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है। जब वह साहित्य बनता है तब बहुत सारे अनुशासन ज़रूरी होते हैं। ...ऐसे दिलचस्प और दिलनवाज़ माहौल में नीरज दइया जैसे सुलझे व्यंग्यकार अलग से दिखाई देते हैं। नीरज जी को पढ़ते हुए पाठक को एहसास होता है कि उनका परिवेश के साथ गहरा रिश्ता है। क्योंकि वे बहुत सामान्य सी बातों को परख कर उनके तल से मतलब की बात निकालने का हुनर जानते हैं। जैसे 'नियम वहां, जहां कोई पूछे' में भारतीय समाज की सामान्य मानसिकता पर वे चुटकी लेते हैं,'...नियमों के जाल से जिसे बचना आता है वह बच जाता है। ...नियम तो बेचारे उस जाल की तरह है जिसे एक बहेलिए ने बिछाया तो पक्षियों को पकड़ने के लिए था,पर वे होशियार निकले। पूरे जाल को ही लेकर उड़ गए।' कितनी सरलता से नीरज जी शासन प्रशासन न्यायपद्धति नागरिक बोध आदि बातों को आईना दिखा देते हैं। नीरज जी कुछेक व्यंग्यकारों की तरह दूर की कौड़ी नहीं लाते। वे कथात्मक शैली में संवाद करते हुए लिखते हैं। भाषा को उन्होंने साध लिया है। छोटी वाक्यसंरचना उनको भाती है। प्रत्यक्ष कथन और अप्रत्यक्ष संकेत में उनको कुशलता प्राप्त है। 'टारगेटमयी मार्च' में नीरज जी लिखते हैं,'बिना खर्च के आया हुआ बजट लौट जाएगा तो यह सरासर हरामखोरी है। लापरवाही है।कार्य के प्रति उदासीनता है। अनुशासनहीनता है।' अब सोचिए जिस समाज में ऐसे 'परिश्रमी,सतर्क, सचेत,अनुशासित' कर्मचारी होंगे वह समाज प्रगति क्यों न करेगा!!! नीरज जी ने साहित्य के बाहरी भीतरी स्वांगों पर अनेक बार लिखा है। प्रायः हर ज़रूरी व्यंग्यकार ने लिखा है। यह अनुभव का मसला तो है ही,बौद्धिक ज़िम्मेदारी का सवाल भी है। इस बहाने सब पर कोड़े बरसाने वाला व्यंग्यकार ख़ुद पर भी बरसता है। कहना ही चाहिए कि नीरज जी बहुत वक्रता के साथ बरसे हैं। नीरज दइया में एक और हुनर भरपूर है। व्यंग्य मूलतः किस्सागोई, लंतरानी और ललित निबंध आदि के सहभाव से विकसित गद्य रूप है (इसको विधा मानने या न मानने वालों को मेरा सलाम,ताकि मैं सलामत रहूं) इसलिए इसमें बात से बात निकालने और बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी का कौशल आवश्यक है। नीरज जी यह काम करते हैं।'पिताजी के जूते' में वे बात निकालते हैं,'देश से असली जूते गायब हो चुके हैं।किसी के पैरों में कोई जूता नहीं,बस भ्रम है कि जूते हैं। अगर गलती से कोई जूता है तो वह बेकार है।' यहां यह कहना है कि बात निकली है,दूर तलक गई है।ऐसा नहीं हुआ कि बात कहीं और चली गई, मूल मंतव्य कहीं और चला गया। यह नीरज जी का अनुशासन है। मैं नीरज जी को पढ़ता रहा हूं। एक व्यक्ति और लेखक के रूप में उनकी आत्मीयता प्रभावित करती है। बेहद जटिल समय और रचना परिवेश में उनकी उपस्थिति आश्वस्त करती है। उनकी उर्वर रचनाशीलता का अभिवादन। ◆सुशील सिद्धार्थ (वरिष्ठ व्यंग्यकार)
Border Security Force, one of the most unsung Security Organizations of India has long lived under shadows of Indian Army. Majority of Indian population feels that Indian Army guards the Frontiers of Nation and BSF is an appendage to it. However, BSF is an independent entity under Ministry of Home Affairs, Government of India and has been entasked to guard volatile Indo-Pak Borders and porous Indo Bangladesh Borders. The force personnel of BSF have no peace posting and remain deployed on one border or the other, away from family for most part of year and communicating with them indirectly. The unsung heroes of this force deployed on extreme frontiers of nation, which are remote, inaccessible, incommunicado, braving hostile terrain and harsh climatic conditions are one of the best soldiers in world. In most of the borders, BSF personnel are the only face of the Government for border population. Therefore, a BSF soldier is responsible not only to guard the frontiers 24x7 under fear of unknown but also to redress grievances of border population and provide them succor at time of need. The BSF soldier is trained not only to be physically tough but also to be mentally robust, emotionally stable and have endurance enough to bear stress and strain of leading monotonous and isolated life at borders. Government of India has well looked after interests of BSF personnel, but a life away from family and children haunts the force personnel. The nature of deployment is such that a BSF person do not remain in constant communication with his wife and children and rarely visits home. With disintegration creeping in society, break-up of joint families and adoption of concept of nuclear family, the problems of BSF personnel on domestic front has increased manifold. There is constant worry about the security of wife and children, their upbringing, their education and their well-being. It is said that more often then not, a BSF soldier enjoys honeymoon every year and sees only vertical growth of children. Reason being, the BSF person visits his family once or twice in a year and by the time he adjusts to the family environment, it is time to go back to duty on border. Page 3 In this age and time, the children are exposed to the internet age and more or less have become global citizens. These empowered teenage children think that their parents are of stone-age and know nothing about the worldly affairs. Wife of a BSF soldier has huge task of bringing up children alone and is always in dilemma whether she is doing best for her children and meeting aspirations of husband. The author is blessed with two daughters of which one is in teenage and second is ardent follower of elder one. The teenage daughter has natural rebellious streak in her and is always in argument with her mother on almost every subject. The author not in direct communication with family by virtue of deployment at border and remains in catch 22 situation, whether to entertain complaints of mother or to listen to bright futuristic ideas of daughter, as and when he communicates with them. To bridge the communication gap, Author writes letters to his daughter from border on different subjects and whenever he gets connected to net, sends same through whatsapp to his daughter. Over a period of time, Author has realized that these letters on whatsapp have made positive impact on overall conduct of his daughter and did change her psychology to a large extent. The book is a tribute to all BSF personnel deployed on border away from family and is also means of sharing of experience about guidance to teenage children in a deliberate and calibrated manner. ARVIND GHILDIYAL COMMANDANT
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किसी भी भाषा का साहित्य केवल सामयिक मुद्दों तक सीमित नहीं रहता बल्कि उसमें सम्बंधित देश-काल का इतिहास, परंपरा, आस्था, जीवन मूल्य व लोकरंग समाहित रहते हैं। राजस्थानी भाषा के साहित्य के संदर्भ में यह बात खास तौर पर कही जा सकती है। संवैधानिक मान्यता के अभाव के बावजूद राजस्थानी के समकालीन साहित्य में यहाँ के परिवेश व सरोकारों की अभिव्यक्ति जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण है उसकी वैश्विक चेतना। राजस्थान की सुरंगी संस्कृति की तरह राजस्थानी साहित्य भी बहुरंगी रहा है। वरिष्ठ आलोचक डॉ नीरज दइया ने 'राजस्थानी साहित्य का समकाल' कृति में हिंदी के माध्यम से दुनिया को राजस्थानी साहित्य की मूल चेतना को जानने-समझने का अवसर सुलभ करवाया है। करीब एक हजार साल पुरानी भाषा के साहित्य में परंपरा की अविरल धारा के साथ आधुनिक भाव बोध को रेखांकित करती यह आलोचना-कृति विविध विधाओं व विमर्शों पर अपने आलेखों से पाठकों को पूर्वाग्रहों से मुक्त करके सम्पन्न बनाती हैं। अनुवाद वह खिड़की है जिससे भाषाओं के बीच परस्पर आवाजाही बनी रहती है। आलोचना विधा के माध्यम से यह कृति इसी काम को नए तरीके से पूर्ण करती है जो अनुवाद से आगे का पड़ाव माना जा सकता है। गवेषणा के साथ समुचित उदाहरणों से किसी अभिमत की पुष्टि इस किताब की खासियत है। भारतीय भाषाओं के बीच राजस्थानी साहित्य की समालोचना की यह पहल नई होने के साथ सार्थक भी है। कहना न होगा, इस कृति से हिंदी आलोचना का फलक अधिक विस्तृत व समृद्ध हुआ है। - डॉ. मदन गोपाल लढ़ा
पारुल पुखराज की यह डायरी जीवन-जगत के सच, स्वप्न और सौंदर्य को समझने-समझाने और साधने की सच्ची, गम्भीर और उल्लेखनीय कोशिश है। एक कवि के कुछ ऐसे प्रयत्न जो शब्दों के माध्यम से मानवीय जीवन को पकड़ने की लालसा और ललक लिए हुए रहता है। मानवीय जीवन, जो किसी भी सजग-संवेदनशील मन के केंद्र में बना-बैठा रहता है। मेरे साथ यह विश्वास बना हुआ है कि मेरे पाठक की ही तरह दूसरे पाठकों के लिए भी इस डायरी से गुजरना आत्मीय अनुभव रहेगा। -जयशंकर
"ममता कालिया ः 2 नवम्बर मथुरा में जन्मी ममता कालिया हिंदी साहित्य की अग्रपंक्ति में स्थान रखती हैं। वे हिंदी और इंग्लिश ,दोनों भाषाओँ में लिखती हैं किन्तु हिंदी को वे अपने ह्रदय की भाषा मानती हैं। दिल्ली मुंबई पुणे इंदौर की विभिन्न शिक्षा संस्थाओं से गुज़रते हुए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए इंग्लिश किया तथा वहीं प्राध्यापन भी। फिर वे मुंबई के एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में परास्नातक विभाग में व्याख्याता बन गयीं। सन १९७३ से वे इलाहाबाद के एक डिग्री कॉलेज में प्राचार्य नियुक्त हुईं और वहीँ से सन २००१ में अवकाश ग्रहण किया। इन तथ्यों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है की सन १९६३ से लगा कर अब तक वे लगातार लिखती रही हैं और प्रासंगिक बनी हुई हैं .भारतीय समाज की विशेषताओं और विषमताओं पर अपनी पैनी नज़र रखते हुए ममता कालिया की प्रत्येक रचना के केंद्र में स्त्रीविमर्श उपस्थित है। विकासशील समाज में बनते बिगड़ते सम्बन्ध,प्रगति के आर्थिक,सामाजिक दबाव,स्त्री की प्रगति को देख कर पुरुष मनोविज्ञान की कुंठाएं और कामकाजी स्त्री के संघर्ष उनके प्रिय विषय हैं। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या विपुल होने के कारण यहाँ केवल उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकों का उल्लेख किया जा रहा है। ममता कालिया ने कविता,कहानी,उपन्यास,संस्मरण,नाटक,यात्रा साहित्य और निबंधों से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।
प्रमुख उपन्यास- १. बेघर, 2.नरक दर नरक, ३ तीन लघु उपन्यास., 4. दौड़., ५.दुक्खम-सुक्खम., ६.सपनों की होम डेलिवरी., ७ कल्चर -वल्चर।
प्रमुख कहानी संग्रह- १छुटकारा 2.सीट नंबर छह ३.उसका यौवन, 4.एक अदद औरत.५.जांच अभी जारी है.६.निर्मोही.7.मुखौटा.८.बोलने वाली औरत.9.थोडा सा प्रगतिशील.१०.खुशकिस्मत.
कविता-संग्रह- १ A Tribute to Papa @ other Poems.